*अमूल्य रतन* 154
अव्यक्त मुरली दिनांक: 06 दिसम्बर 1969

*संस्कारों को अपने अंदर समाने के लिए*

एक तो *गहराई में जाना* होता है और अंदर दबाना होता है। कूटना पड़ता है।
कूटना अर्थात् *हर एक बात को महीन बनाना।*

जितना बाप को प्रत्यक्ष करेंगे उतना खुद को प्रत्यक्ष करेंगे। *आपकी प्रत्यक्षता बाप के साथ ही है।*
ऐसा बनना और फिर बनाना।

*मधुबन – सौभाग्य की लकीर*

मधुबन के लिए ही गायन है कोई ऐसा वैसा पांव नहीं रख सकता। *यह स्नेह की लकीर है जिसके घेराव के अंदर बापदादा निवास करते हैं।
इसके अंदर कोई आ नहीं सकता। _चाहे अपना शीश भी उतार कर रखे।_*

*सौभाग्य*

इस स्नेह के लिए तो आगे चलकर जब रोना देखेंगे तब आप लोगों को उसकी वैल्यू का मालूम होगा। *स्नेह के एक बूंद की प्यासी हो चरणों में गिरेंगे।* और _आप लोगों ने तो स्नेह के सागर को अपने में समाया है।_