*अमूल्य रतन* 242
अव्यक्त मुरली दिनांक: *05 April 1970*

*स्नेही बनने के लिए*

विदेही बनना अर्थात् स्नेही बनना क्योंकि बाप विदेही है। ऐसे ही *देह में रहते विदेही रहने वाले सर्व के स्नेही* होते हैं।

*अकेलापन और साथ का अनुभव*

अगर शिवबाबा साथ है तो अकेलापन लगेगा नहीं। अकेला अर्थात् न्यारा संगठन अर्थात् प्यारा।

*अकेला रहना ही साथ है।*
बाहर का अकेलापन और अंदर का साथ।
बाहर के साथ से अकेलापन भूल जाते हैं।
लेकिन बाहर से अकेले अंदर से अकेले नहीं।

*मस्तकमणी बनने के लिए*

किसी भी बात में ना शब्द संकल्प में भी न हो। *सदैव हां करने वाले आस्तिक बनो* वही मस्तकमणी है। ऐसे गुण वाले मस्तक में आ जाते हैं।

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