*अमूल्य रतन* 269
अव्यक्त मुरली दिनांक: *25 June 1970*

*अधिकारी और अधीन*

अधिकार को भूलने से अधिकारी नहीं समझते फिर माया के अधीन हो जाते हो।
जितना अपने को *अधिकारी* समझते हैं उतना उदारचित्त बनेंगे। जितना जो *उदारचित्त* बनता है उतना *उदाहरण स्वरूप* भी बनता है और अनेकों का *उद्धार* भी कर सकता है।

*माया का प्रवेश द्वार*

पहले माया भिन्न-भिन्न रूप से आलस्य लाती है। देह अभिमान में भी पहला रूप आलस्य का धारण करती है। उस समय *श्रीमत को वेरीफाई कराने का आलस्य* आता है।
यह आलस्य, सुस्ती तथा उदासी *ईश्वरीय संबंध से दूर* कर देती है।
*साकार संबंध व बुद्धि के संबंध व सहयोग लेने के संबंध से दूर* कर देती है।
सुस्ती का विकराल रूप देह अहंकार में प्रत्यक्ष रूप में आ जाता है।
इस *छठे विकार से सब शुरू* होता है।

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