*अमूल्य रतन* 186
अव्यक्त मुरली दिनांक: *24 जनवरी 1970*

जितना *स्वयं को बाप के आगे समर्पण* करते हैं उतना ही *बाप भी उन बच्चों के आगे समर्पण* होते हैं। अर्थात् जो बाप का खज़ाना है वह स्वतः ही उनका बन जाता है।

समर्पण करना और कराना यही ब्राह्मणों का धंधा है।

*निश्चय की निशानी – विजय*

निश्चय बुद्धि की कभी हार नहीं होती। *हार होती है तो समझना चाहिए कि निश्चय की कमी है।*

*विघ्नों को पार करने के लिए*

सदैव समझो कि यह पेपर है अपनी स्थिति की परख यह पेपर कराता है। बात को नहीं देखना है लेकिन पेपर समझना है।
_कभी मन्सा का, कभी लोक-लाज का, कभी संबंध का, कभी देशवासियों का क्वेश्चन आएगा।_

जितना खुद अव्यक्त वायुमंडल बनाने में बिजी रहेंगे उतना स्वत: सभी होता रहेगा।