*अमूल्य रतन* 198
अव्यक्त मुरली दिनांक: *25 जनवरी 1970*

सोचो, एक ही पढ़ाई, एक ही पढ़ाने वाला, फिर भी कोई विजयी बन गए हैं, कोई बन रहे हैं, यह फर्क क्यों?

*स्मृति, विस्मृति के खेल में विजयी बनने के लिए*

*अगर कभी स्मृति, कभी विस्मृति रहा तो अंत समय भी विस्मृति हो सकती है।* जैसे कोई शरीर छोड़ते हैं, अगर उनका कोई संस्कार दृढ़ है तो अंत में भी वह संस्कार सामने आता है। इसलिए अभी से स्मृति के संस्कार भरो। तो अंत में यही मददगार बनेंगे – विजयी बनने में।

*समय की घंटी बज चुकी है*

पहली सीटी थी साकार में मां की और दूसरी बजी साकार रूप की। अब तीसरी बजनी है। *दो सीटी होती हैं तैयार करने की और तीसरी होती है सवार हो जाने की।*
अगर तीसरी सीटी पर संस्कारों को समेटना शुरू करेंगे तो फिर रह जाएंगे।
*व्यर्थ संकल्पों रुपी बिस्तरा और अनेक समस्याओं की पेटी दोनों ही बंद करनी है।*