*अमूल्य रतन* 110
अव्यक्त मुरली दिनांक: 18 सितंबर 1969
*सरेंडर का अर्थ*
मेरा कुछ रहा ही नहीं। सरेंडर हुआ तो *तन मन धन सब कुछ अर्पण।*
अर्पण किए हुए मन में अपने अनुसार संकल्प उठा ही कैसे सकते हो?
तन से विकर्म कर ही कैसे सकते हो?
धन को विकल्प अथवा व्यर्थ कार्य में लगा ही कैसे सकते हो?
*मन में क्या चलाना है, तन से क्या करना है, धन से क्या करना है वह भी श्रीमत मिलती है।* जिनको दिया है उनकी मत पर ही चलना है।
*जिसने मन दे दिया उसकी मन्मनाभव अवस्था होगी।*
अभी मरजीवा तो बने हो परंतु जलकर एकदम खाक बन जाए वह नहीं बने हैं।